महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग जिले में बसा वेंगुर्ला कस्बा (लगभग 15,000 की आबादी) एक ऐसा उदाहरण बन गया है जिसने कई बड़े शहरों को मुश्किल में डालने वाली समस्या – ठोस कचरे का प्रबंधन – को हल कर दिखाया है। यहाँ एक कुशल और समुदाय-केंद्रित कचरा प्रबंधन प्रणाली है जो अपने 85% से अधिक ठोस कचरे को रिसाइकल करती है।
वेंगुर्ला की यात्रा: एक गंदे कस्बे से ‘हरित मॉडल’ तक
लगभग एक दशक पहले, वेंगुर्ला भी भारत के किसी और कस्बे की तरह ही कचरे से अटी हुई डस्टबिन, खुले में कचरे के ढेर और बदबू से जूझ रहा था। मोड़ तब आया जब 2012-2013 में स्थानीय नगर परिषद ने, तत्कालीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी श्रीकांत शिंदे के नेतृत्व में, इस समस्या से निपटने का फैसला किया। लैंडफिल पर निर्भर रहने के बजाय, उन्होंने एक ऐसी प्रणाली बनाई जो स्रोत पर कचरे को कम करने, पुन: उपयोग और रिसाइकल के सिद्धांतों पर काम करती थी।
वेंगुर्ला मॉडल: चरण-दर-चरण विवरण
1. स्रोत पर अलगाव: पहला और सबसे ज़रूरी कदम
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दो-डिब्बे प्रणाली: हर घर, दुकान और होटल को दो डिब्बे दिए गए – हरा डिब्बा गीले (सड़ने योग्य) कचरे के लिए और नीला डिब्बा सूखे कचरे के लिए।
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जागरूकता: नगरपालिका और स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों ने लोगों को घर-घर जाकर समझाया कि कचरे को सही तरीके से कैसे अलग करना है।
2. घर-घर जाकर कचरा एकत्रित करना: “पौरकर्मिका” प्रणाली
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सूक्ष्म-योजना: कस्बे को 35 छोटे वार्डों में बांटा गया।
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रोज़ाना चक्कर: नगरपालिका के सफाई कर्मचारी हर घर और व्यावसायिक प्रतिष्ठान से रोज़ाना अलग-अलग कचरा एकत्र करते हैं।
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अलग-अलग संग्रह: वे गीले और सूखे कचरे को अलग रखने के लिए अपने वाहनों में अलग-अलग डिब्बे बनवाए।
3. प्रसंस्करण: जहाँ “शून्य-कचरा” का जादू होता है
एकत्रित कचरे को एक केंद्रीय ठोस कचरा प्रसंस्करण संयंत्र में ले जाया जाता है।
A. गीला कचरा – कुल कचरे का ~55%
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कम्पोस्टिंग: गीले कचरे को वर्मीकम्पोस्टिंग (केंचुओं द्वारा) और वैज्ञानिक कम्पोस्टिंग (सूक्ष्मजीवों द्वारा) इकाइयों में डाला जाता है।
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आउटपुट: इस प्रक्रिया से उच्च गुणवत्ता वाली जैविक खाद तैयार होती है।
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पुन: उपयोग: इस खाद को पैक करके स्थानीय किसानों को बेचा जाता है, जिससे नगरपालिका की आय होती है और जैविक खेती को बढ़ावा मिलता है।
B. सूखा कचरा – कुल कचरे का ~30%
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बारीक छँटाई: सूखे कचरे को एक मटेरियल रिकवरी फैसिलिटी (MRF) में ले जाया जाता है, जहाँ कर्मचारी इसे 15 से भी अधिक श्रेणियों में अलग करते हैं, जैसे:
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प्लास्टिक, कांच, धातु, कागज, इ-कचरा आदि।
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आउटपुट और पुन: उपयोग: हर छंटे हुए सामान को बेला बनाकर अधिकृत रिसाइकलर्स को बेच दिया जाता है।
C. निष्क्रिय और सैनिटरी कचरा – कुल कचरे का ~15%
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निर्माण कचरा: इसे पीसकर सड़क निर्माण में इस्तेमाल किया जाता है।
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सैनिटरी कचरा (डायपर, नैपकिन): इसे अलग से एकत्र करके एक छोटे भस्मक (इन्सिनरेटर) में जलाया जाता है।

वेंगुर्ला की सफलता के मुख्य कारण
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मजबूत प्रशासनिक इच्छाशक्ति: नगरपालिका की ओर से दृढ़ संकल्प।
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समुदाय की भागीदारी: वेंगुर्ला के निवासी इसके असली हीरो हैं, जो रोज़ाना कचरा अलग करते हैं।
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विकेंद्रीकृत प्रसंस्करण: कचरे का प्रसंस्करण शहर के भीतर ही होता है, जिससे दूर लैंडफिल में ले जाने का खर्च और प्रदूषण बचता है।
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टिकाऊ आय मॉडल: खाद और रिसाइकल सामग्री की बिक्री से होने वाली आय से संयंत्र का खर्च निकल आता है।
प्रभाव: एक बदलता हुआ कस्बा
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स्वच्छता: अब वेंगुर्ला में कचरे के ढेर या बदबू नहीं है।
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पर्यावरणीय लाभ: भूजल प्रदूषण में कमी, स्वच्छ तटरेखा।
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आर्थिक लाभ: लैंडफिल पर खर्च की बचत, खाद बेचकर आय, पर्यटन को बढ़ावा।
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सामाजिक लाभ: रोज़गार का सृजन, बेहतर स्वास्थ्य, और नागरिकों में गर्व की भावना।
भारत के लिए सीख
वेंगुर्ला की कहानी साबित करती है कि “शून्य-कचरा” कोई कल्पना नहीं, बल्कि एक हकीकत है। यह दिखाता है कि भारत की कचरे की समस्या का समाधान केवल बड़े पैमाने के तकनीकी उपायों में नहीं, बल्कि इनमें है:
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स्रोत पर ही कचरा अलग करना शुरू करना।
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स्थानीय निकायों को अपना कचरा खुद प्रबंधित करने के लिए सशक्त बनाना।
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नागरिक शिक्षा में निवेश करना।
वेंगुर्ला सिर्फ एक साफ-सुथरा कस्बा ही नहीं, बल्कि भारत में टिकाऊ शहरी जीवन का एक जीता-जागता ब्लूप्रिंट है।